Thursday, December 27, 2007
My first snow experience
This was my first experience to see real snow. It seems the whole range of mountains are covered with cotton.
This was second day of Christmas (26th of December 2007).
It was holiday. My drawing room clock was showing 1 o'clock. I was busy with my laptop in my room. Suddenly I saw in the glass of the window, there was snowing outside. I opened the window and feels the softness of snow with my hand. Immediately, I shut down my laptop and Equipped to go outside with my digicam (Digital Camera). I came down from stairs then I think to get my bike but then I dropped my idea and went by walk in the street. I was much confused about, where to go.
Then I walk in to a way that was my usual way to go to office. I've taken some snaps there. I was pretty confused about taking snaps because all the mountains' was covered with snow and fog. That was again a foggy day in Germany.
Then I walk a long and continuously taking the snaps. Then I came back in the same way and went to the way which was totally unknown for me. There I found beautiful garden which was also fully covered with snow.
I was thinking that if the paradise is here in the earth then it cannot be more beautiful then this.
Wednesday, December 26, 2007
कौन दुश्मन हैं?
गुलाम तुम भी थे यारो, गुलाम हम भी थे
नहा के खून में आयी थी फ़स्ले आज़ादी
मज़ा तो तब था के मिलकर इलाज-ए-जाँ करते
खुद अपने हाथ से तामीर-ए-गुलसिताँ करते
हमारे दर्द मे तुम, और तुम्हारे दर्द मे हम
शरीक होते तो जश्न-ए-आशियाँ करते
हम आयें सुबह-ए-बनारस की रोशनी लेकर,
हिमालयों की हवाओं की ताजगी लेकर,
और इसके बाद ये पूछें, कौन दुश्मन हैं?
Sunday, December 16, 2007
शहर कुछ शेर
जिन चराग़ों से बुर्ज़ुगों ने रौशनी की थी
उन्हीं चराग़ों से हम बस्तियाँ जलाते हैं।
मज़हबी दंगों ने मेरा शहर वीराँ कर दिया
एक आँधी सैकडों पत्ते उड़ाकर ले गई।
हमारे गाँव के सारे बुज़ुर्ग कहते हैं
बड़े शहरों में बहुत छोटे लोग रहते हैं।
गाँव से शहर में आए तो ये मालूम हुआ
घर नहीं दिल भी यहाँ पत्थरों के होते हैं।
कोशिश तो की बहुत मगर दिल तक नहीं पहुँचे
वो शहर के थे हाथ मिलाकर चले गए।
किसके दिल में है क्या अंदाज़ा नहीं मिलता है
शहर-ए-दीवार का दरवाज़ा नहीं मिलता है।
मर के वो अपने खून से तहरीर लिख गया
इक अजनबी को शहर में पानी नहीं मिला।
फूलों की न उम्मीद करो आके शहर में
घर में यहाँ तुलसी की जगह नागफनी है।
होटल का ताज़ा खाना भी स्वाद नहीं दे पाता है
माँ के हाथ की बासी रोटी मक्खन जैसी लगती है।
होठों पर मुस्कान समेटे दिल में पैनी आरी है
बाहर से भोले-भाले हैं भीतर से होशियारी है।
भूखे प्यासे पूछ रहे हैं रो-रो कर राजधानी से
कब तक हम लाचार रहेंगे आख़िर रोटी पानी से।
जब तक पैसा था बस्ती के सबके सब घर अपने थे
जब हाथों को फैलाया सबके दरवाज़े बंद मिले।
मशरूफ़ हैं सब, दौरे-तरक्की के नाम पर
कोई भी मेरे शहर में खाली नहीं मिलता।
- डॉ. सुनील जोगी
Thursday, December 13, 2007
मावस की काली रातों में दिल का दरवाज़ा खुलता है
जब दर्द की प्याली रातों में ग़म आंसू के संग होते हैं,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियां टिक-टिक चलती हैं, सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊंच-नीच समझाने में माथे कि नस दुःख जाती हैं,
तब इक पगली लड़की के बिन जीना ग़द्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
जब पोथे खाली होते हैं, जब हार सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नहीं आतीं, अफ़साने गाली होते हैं।
जब बासी फ़ीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जाता है,
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कोलेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर मां गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मना करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब इक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
जब कमरे में सन्नटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिनभर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाते हैं, घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का एक फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फ़नकारी लगता है,
तब इक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये...
तुम एम. ए. फ़र्स्ट डिवीजन हो, मैं हुआ मैट्रिक फ़ेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
तुम फौजी अफ़्सर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ ।
तुम रबडी खीर मलाई हो, मैं सत्तू सपरेटा हूँ ।
तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड के नीचे लेटा हूँ ।
तुम नयी मारूती लगती हो, मैं स्कूटर लम्बरेटा हूँ ।
इस कदर अगर हम छुप-छुप कर, आपस मे प्रेम बढायेंगे ।
तो एक रोज़ तेरे डैडी अमरीश पुरी बन जायेंगे ।
सब हड्डी पसली तोड मुझे, भिजवा देंगे वो जेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
तुम अरब देश की घोडी हो, मैं हूँ गदहे की नाल प्रिये ।
तुम दीवली क बोनस हो, मैं भूखों की हड़ताल प्रिये ।
तुम हीरे जडी तश्तरी हो, मैं एल्मुनिअम का थाल प्रिये ।
तुम चिकेन-सूप बिरयानी हो, मैं कंकड वाली दाल प्रिये ।
तुम हिरन-चौकडी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये ।
तुम चन्दन-वन की लकडी हो, मैं हूँ बबूल की छाल प्रिये ।
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मार मुझे गुलेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
मैं शनि-देव जैसा कुरूप, तुम कोमल कन्चन काया हो ।
मैं तन-से मन-से कांशी राम, तुम महा चन्चला माया हो ।
तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ ।
तुम राज घाट का शान्ति मार्च, मैं हिन्दू-मुस्लिम दन्गा हूँ ।
तुम हो पूनम का ताजमहल, मैं काली गुफ़ा अजन्ता की ।
तुम हो वरदान विधाता का, मैं गलती हूँ भगवन्ता की ।
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम-ठेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ ।
तुम ए. के.-४७ जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ ।
तुम चतुर राबडी देवी सी, मैं भोला-भाला लालू हूँ ।
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिडियाघर का भालू हूँ ।
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी. पी. सिंह सा खाली हूँ ।
तुम हँसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिसमैन की गाली हूँ ।
कल जेल अगर हो जाये तो, दिलवा देन तुम बेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
मैं ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पाँच सितारा होटल हो ।
मैं महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड-लेबल की बोतल हो ।
तुम चित्रहार का मधुर गीत, मैं कॄषि-दर्शन की झाड़ी हूँ ।
तुम विश्व-सुन्दरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप काबाडी हूँ ।
तुम सोनी का मोबाइल हो, मैं टेलीफोन वाला हूँ चोंगा ।
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंघा ।
दस मन्ज़िल से गिर जाउँगा, मत आगे मुझे ढकेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
तुम सत्ता की महरानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ ।
तुम हो ममता-जयललिता सी, मैं क्वारा अटल-बिहारी हूँ ।
तुम तेन्दुलकर का शतक प्रिये, मैं फ़ॉलो-ऑन की पारी हूँ ।
तुम गेट्ज़, मटीज़, कोरोला हो, मैं लेलैन्ड की लॉरी हूँ ।
मुझको रेफ़री ही रहने दो, मत खेलो मुझसे खेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
मैं सोच रहा कि रहे हैं कब से, श्रोता मुझको झेल प्रिये ।
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।
कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है,
मैं तुझसे दूर कैसा हुँ तू मुझसे दूर कैसी है
ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है !!!
समुँदर पीर का अंदर है लेकिन रो नहीं सकता
ये आसुँ प्यार का मोती है इसको खो नहीं सकता ,
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नहीं पाया वो तेरा हो नहीं सकता !!!
मुहब्बत एक एहसासों की पावन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है,
यहाँ सब लोग कहते है मेरी आँखों में आसूँ हैं
जो तू समझे तो मोती है जो न समझे तो पानी है !!!
भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हँगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पला बैठा तो हँगामा,
अभी तक डूब कर सुनते थे हम किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हक़ीक़त में बदल बैठा तो हँगामा !!!
Sunday, December 9, 2007
अशोक चक्रधर - रचनाए
समंदर की उम्र
लहर ने समंदर से
उसकी उम्र पूछी
समंदर मुस्करा दिया
लेकिन जब बूँद ने
लहर से उसकी उम्र पूछी
तो लहर बिगड़ गई
कुढ़ गई चिढ़ गई
बूँद के ऊपर ही चढ़ गई
और. . .मर गई!
बूँद समंदर में समा गई
और. . .समंदर की उम्र बढ़ा गई!
गरीबदास का शून्य
-अच्छा सामने देख
आसमान दिखता है?
- दिखता है।
- धरती दिखती है?
- दिखती है।
- ये दोनों जहाँ मिलते हैं
वो लाइन दिखती है?
- दिखती है साब।
इसे तो बहुत बार देखा है।
- बस ग़रीबदास
यही ग़रीबी की रेखा है।
सात जनम बीत जाएँगे
तू दौड़ता जाएगा, दौड़ता जाएगा,
लेकिन वहाँ तक
कभी नहीं पहुँच पाएगा।
और जब, पहुँच ही नहीं पाएगा
तो उठ कैसे पाएगा?
जहाँ हैं, वहीं का वहीं रह जाएगा।
गरीबदास!
क्षितिज का ये नज़ारा
हट सकता है
पर क्षितिज की रेखा
नहीं हट सकती,
हमारे देश में
रेखा की ग़रीबी तो मिट सकती है,
पर ग़रीबी की रेखा
नहीं मिट सकती।
गति का कुसूर
क्या होता है कार में -
पास की चीज़ें पीछे दौड़ जाती है
तेज़ रफ़तार में!
और ये शायद
गति का ही कुसूर है
कि वही चीज़
देर तक साथ रहती है
जो जितनी दूर है।