Thursday, December 13, 2007

मावस की काली रातों में दिल का दरवाज़ा खुलता है

मावस की काली रातों में दिल का दरवाज़ा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में ग़म आंसू के संग होते हैं,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियां टिक-टिक चलती हैं, सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊंच-नीच समझाने में माथे कि नस दुःख जाती हैं,
तब इक पगली लड़की के बिन जीना ग़द्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

जब पोथे खाली होते हैं, जब हार सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नहीं आतीं, अफ़साने गाली होते हैं।
जब बासी फ़ीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जाता है,
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कोलेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर मां गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मना करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब इक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

जब कमरे में सन्नटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिनभर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाते हैं, घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का एक फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फ़नकारी लगता है,
तब इक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

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