Tuesday, December 4, 2007

गुलज़ार साहब - रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने॥


इंसानी रिश्तों का क्या है..
बड़े नाजुक से होते हैं...
इनकी गिरहें खोलना बेहद मुश्किल है
जितना खोलों उतनी ही उलझती जाती हैं..
और किसी रिश्ते को यूँ ही ख़त्म कर देना इतना आसान नहीं...
कितनी यादें दफ्न करनी पड़ती हैं उसके साथ...


माज़ी के वो अनमोल पल, उन साथ बिताए लमहों की अनकही सी तपिश...
कुछ ऍसा ही महसूस करा रहें हैं गुलज़ार अपनी इस बेहद खूबसूरत नज़्म में ....
कितने सुंदर शब्द चित्रों का इस्तेमाल किया है पूरी नज़्म में गुलज़ार ने कि इसकी हर इक पंक्ति मन में एक गहरी तासीर छोड़ती हुई जाती है...





रात भर सर्द हवा चलती रही

रात भर हमने अलाव तापा

मैंने माज़ी से कई खुश्क सी शाखें काटी

तुमने भी गुजरे हुए लमहों के पत्ते तोड़े

मैंने जेबों से निकाली सभी सूखी नज़्में

तुमने भी हाथों से मुरझाए हुए ख़त खोले

अपनी इन आँखों से मैंने कई मांजे तोड़े

और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी

तुमने भी पलकों पे नमी सूख गई थी, सो गिरा दी


रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको

काट के डाल दिया जलते अलावों में उसे

रात भर फूकों से हर लौ को जगाए रखा

और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा

रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने..

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